Sunday, June 10, 2012

हर्ष की तलाश

आज जब फेसबुक में उन्हें उनके नए हमराही के साथ मुस्कुराते देखा
तो अन्दर से एक आग सी खौल उठी, लपट दर लपट खुद को जलाती हुई

 आग जब ज़हन को जला बैठी तो एहसास हुआ कि अभी भी वो बाकी हैं कहीं
एक अजब सा सन्नाटा अन्दर से बोल उठा, कहने लगा कि मैं निकम्मा हूँ

मैं लड़ा, खुद को निकम्मा नहीं साबित करने में निकम्मेपन की हदें पार कर बैठा
सन्नाटा हार कर वापस ज़हन के उस पार जा बैठ गया, और इधर मैं और उनकी तस्वीर

मैंने उनकी आखों में झाँका, बहुत कोशिश की उनकी मुस्कान को झूठी साबित करने की
लेकिन नाकाम, बेइंतेहा खुशी मानो गरम तेल की बूंदों की तरह उनके चेहरे से मेरी ओर बरस रही

मैंने उनके हमराही से नज़र मिलायी, उनकी मुस्कान मुझे नीचा दिखा रही थीं
और फिर, पता नहीं क्यूँ, मैं मुस्कुराया, बेझिझक, बेफ़िक्र, और उनके हमराही शर्मा बैठे

न वो समझ पाई मेरी खुशी का कारण, न उनके हमराही, पर मेरी समझ ने कहा -
उन्हें किसी की ज़रूरत थी खुश रहने के लिए, लेकिन मैं - हर्ष ही हर्ष 

1 comment:

mitusha said...

good one.I liked it!